Monday, February 25, 2013

Yuvacharya Shri Madhukar Muni

श्रमण संघीय प्रथम युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी . सा. मधुकर संक्षिप्त जीवन दर्शन

जन्म शताब्दी वर्ष 27-12-2012 से 16-12-2013
जिस संत को हजारों-लाखों लोगों की असीम श्रद्धा भक्ति प्राप्त हो और वो उससे बिलकुल ही निस्पृह, अनासक्त तथा सीधा-सरल भाव-युक्त रहे, तो ये ऐसी बात होगी कि गुलाब का फूल तो है, सुगंध और सौन्दर्य भी है, मगर उसमे कांटा नहीं है ।
विद्या के साथ विनय, अधिकार के साथ विवेक, प्रतिष्ठा और लोकश्रद्धा के साथ सरलता आदि ऐसी अद्भूत बाते हैं, जो किसी विरले मे ही पायी जाती है। मुनि श्री मिश्रीमल जी . सा. मधुकरमें ये विरल विशेषताए देखकर मन श्रद्धा और आश्चर्य से पुलक-पुलक जाता है। उनके जीवन मे गहरे पैठकर देखने पर भी कहीं कटुता, विषमता, छल-छिद्र, अहंकार आदि के कांटे देखने को नहीं मिलेंगे। वे बहुत ही सरल (पर, चतुर) बहुत ही विनम्र (पर, स्वाभिमानी) बहुत ही मधुर (पर, निश्छल) और अनुशासित (पर, कोमल हृदय) श्रमण थे।
पूज्य गुरुदेव श्री का जनम वि. स. 1970 मार्गशीर्ष शुक्ल 14, दिनांक 12 दिसंबर 1913 को जोधपुर के पास तिंवरी ग्राम मे हुआ। आप श्री के पिता का नाम श्री जमनालाल जी धारीवाल (कोठारी) एवं माता जी का नाम तुलसाबाई था। आपका बचपन का नाम मिश्रीमल था। छोटी आयु मे ही आपके सिर से पिता श्री का साया उठ गया।
बचपन के धार्मिक संस्कार --
आप मे बचपन से ही धर्म गुरुओ के प्रति गहरी श्रद्धा भक्ति थी। एक बार स्वामी जी श्री जोरावरमल जी म. सा. व्याख्यान दे रहे थे, तब स्थानक के बाहर सारे बच्चे खेल रहे थे। उस समय गुरुदेव श्री की उम्र 6-7 वर्ष की थी। आपने सभी बच्चों से कहा कि अंदर गुरुदेव व्याख्यान दे रहे है, बाहर मैं भी तुम्हें व्याख्यान सुनाता हूँ। सब बालक बैठ गए। आप मिट्टी का ऊंचा चबूतरा बनाकर बैठे और बच्चो से बोले- मैं तुम्हारा गुरु हूँ, तुम सब मेरे चेले हो, मैं व्याख्यान सुना रहा हूँ। बालक मिश्रीमल के यही धार्मिक संस्कार धीरे धीरे दीक्षा लेने की तैयारी मे रंग गए।
दीक्षा मे बाधा : वैराग्य की जीत --
माता श्री तुलसा जी ने जब ये शुभ संस्कार बालक मिश्रीमल मे देखे, तो उन्होने गुरुदेव श्री जोरावरमल जी म. सा. को दीक्षा देने की प्रार्थना कर दी। परिवार के अन्य लोगों ने आपकी दीक्षा मे कई विघ्न पैदा किये। बात कचहरी तक चली गयी। तब स्वयं मजिस्ट्रेट ने आपकी परीक्षा ली और नन्हें बालक का वैराग्य, और प्रबुद्धता देखकर चकित रह गए और दीक्षा की आज्ञा जारी की। आखिर मे वि. स. 1980 वैशाख शुक्ल 10, दिनांक 26 अप्रैल 1923 को अजमेर के भिणाय ग्राम मे अत्यंत हर्षोल्लास के साथ आचार्य श्री जयमल जी म.सा. की परंपरा मे स्वामी जी श्री जोरावरमल जी म.सा. के पास आपने संयम जीवन अंगीकार किया। आपकी दीक्षा के कुछ समय बाद आपकी माता श्री भी दीक्षित हुई।
गहन अध्ययन --
दीक्षा लेते ही आपने मौन व्रत धारण करके संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, जैन आगम, न्याय, दर्शन आदि का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। आपके अध्ययन में आपके ज्येष्ठ गुरु भ्राता स्वामी जी श्री हजारीमल जी म.सा. और स्वामी जी श्री ब्रजलाल जी का भरपूर सहयोग रहा। लगभग 20-22 वर्षों तक आपने मौन व्रत का पालन किया। इस एकनिष्ठ ज्ञानोपासना के कारण मुनि श्री ने अध्ययन, भाषण और लेखन मे प्रौढ़ता प्राप्त कर ली। आपको प्रज्ञामूर्ति, बहुश्रुत, पंडित रत्न, आगम मनीषी आदि अनेकानेक उपाधियों से संबोधित किया जाने लगा।
जयगच्छ आचार्य पद एवं विसर्जन --
वि. स. 2004, वेशाख कृष्ण 2 को नागौर मे आप श्री को जयमल गच्छ के नवमे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। उस समय आपका नाम मिश्रीमल जी से बदलकर जसवंतमल कर दिया गया- यशवंत-यशस्वी। आचार्य पद ग्रहण करने के पश्चात आपके मन मे एक उथल पुथल भरी बेचेनी ही भरी रही। एकांत साधक, शांति-प्रिय, निर्लिप्त व्यक्ति को कभी भी पद की चाह नहीं होती। यश की लिप्साओ से दूर रहना ही उसे पसंद होता है। आप श्री ने ढृढ़ निश्चय के साथ आचार्य पद का त्याग कर दिया। ये आपकी महानता थी कि आपने अपनी साधना के लिए आचार्य जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद का विसर्जन कर दिया। आपका कहना था कि, मैं अनुशासन मे रह तो सकता हूँ, पर किसी को रख नहीं सकता ।
श्रमण संघ गठन : भूमिका --
इस पद त्याग से स्थानकवासी समाज मे एक बड़ी भारी क्रांति हुई। यह क्रांति थी – पद लिप्सा का लगाव कम और संघ की एकता का प्रबल भाव। इन दोनों विशिष्ट भावों ने वि. स. 2009, सन 1952  के सादडी मे सम्पन्न हुये विशाल साधू सम्मेलन मे कई स्वतंत्र संप्रदायों ने अपने अस्तित्व को गला कर श्रमण संघ को जन्म दिया।
जो पदों से दूर भागता है, पद उसका पीछा नहीं छोड़ते। वि. स. 2033 मे आपका वर्षावास नागौर मे था, तब आपको श्रमण संघ के उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। आपकी विद्वता और योग्यता से प्रभावित होकर, तथा सकल संघ के हार्दिक आग्रह पर वि. स. 2036 श्रावण शुक्ला 1 को आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म.सा. ने 25 जुलाई 1979 को हैदराबाद मे आपको श्रमण संघ का प्रथम युवाचार्य घोषित किया। इससे श्री संघ मे हर्ष की लहर दौड़ गयी। बाद मे वि. स. 2037 चैत्र शुक्ल 10 को जोधपुर मे धूमधाम से युवाचार्य चादर औढाई गई।
मीठा मिश्री : स्वनाम धन्य --
मधुकर मुनि जी मधुर, सरल, विनम्र एवं शांत स्वभाव के गंभीर सत्पुरुष थे। आपकी वाणी से जैसे अमृत वर्षा होती थी। सचमुच मिश्री सी मिठास थी आपके जीवन मे और वचनो मे। मारवाड़ मे अधिकांश श्रद्धालु आपको “मीठा मिश्री’’ नाम से जानते थे। आप स्वनाम धन्य थे – एक बार आप धनारी ग्राम मे पधारे। तब वहाँ एक खारे पानी का कुआं था, आपके चरण प्रभाव से उस कुवे का पानी अमृत समान मीठा हो गया। स्वभाव मे सहज मधुरता - गुणज्ञ दृष्टि होने के कारण आपका उपनाम “मधुकर” था।
देवलोक-गमन --
आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. सा. के हार्दिक आग्रह पर श्रमण संघ को मजबूत बनाने और भावी योजनाओं पर विचार करने के उद्देश्य से आपने मारवाड से महाराष्ट्र की और उग्र विहार किया। इस विहार काल मे आपके 60 वर्षों के संयम साथी – बड़े गुरुभ्राता श्री ब्रजलाल जी म.सा. का धूलिया मे देवलोकगमन हो गया। आप दोनों की जोड़ी राम –लक्ष्मण के जैसी थी। नासिक मे आचार्य श्री के साथ ऐतिहासिक चातुर्मास पूर्ण करने बाद वि. स. 2040, मार्गर्शीर्ष कृष्ण 7, दिनांक 26 नवंबर 1983 को नासिक मे आपका आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। जिस चादर को आचार्य श्री आनंद ऋषि जी म. सा. ने दी, वो युवाचार्य श्री ने आचार्य भगवंत के श्री चरणों मे पुन: समर्पित कर दी। आपके महाप्रयाण से जय गच्छ मे ही नहीं सम्पूर्ण श्रमण संघ मे सन्नाटा छा गया। एक बड़ी रिक्तता आ गयी, जिसकी पूर्ति आज तक नहीं हो पायी।
आगम प्रकाशन : साहित्य सृजन --
पूज्य गुरुदेव श्री मिश्रीमल जी म.सा. “मधुकर” उत्कृष्ट साहित्य शिल्पी थे। आपने दूरगामी दृष्टि रखते हुये 32 आगमों का हिन्दी भाषा मे अनुवाद एवं सम्पादन कर प्रकाशित करवाने जैसा भागीरथी कार्य किया, जिससे सभी संप्रदायों के साधू संत एवं जनमानस लाभान्वित हुये। आपका यह उपकार जैन समाज युगों युगों तक याद रखेगा। (उल्लेखनीय है कि 16 आगमों का प्रकाशन आपके देवलोकगमन के पश्चात आपकी अंतेवासिनी शिष्या श्री उमराव कुँवर जी म. सा. “अर्चना” ने प्रबल पुरुषार्थ से पूर्ण करवाया) आप मधुर प्रवचनकार, कुशल कथाकार भी थे। आपने सरल भाषा मे जैन कथामाला के 51 भाग भी लिखे, जिनकी पूरे भारतवर्ष मे अत्यंत सराहना हुई। अत्यंत श्रम पूर्वक आपके समस्त जैन ग्रन्थों का निचोड़ निकाला जो जैन धर्म की हजार शिक्षाए के रूप मे हमारे सामने है। इसके अतिरिक्त साधना के सूत्र, अंतर की ओर, पर्युषण पर्व प्रवचन, तीर्थंकर महावीर आदि अनेक पुस्तके लिखी। अहिंसा की विजय, तलाश, छाया, आन पर बलिदान, पिंजरे का पंछी आदि अनेकानेक उपन्यास भी आपकी सफल कलम से निकले। आपकी अंतिम शिक्षा - रचना थी – जीओ तो ऐसे जीओ । आपके साहित्य जन-जन हितार्थ थे।
सचमुच मे आप जैसे सरल, विनम्र, गुणज्ञ, एकांतप्रिय, मीठे, विद्वता के साथ विनम्र, साधू विरले ही होते है। ऐसे निर्मल संयम साधक और जिनशासन प्रभावक गुरुदेव के श्री चरणों मे शत शत वंदन --     
 जैन संजीव नाहटा, अहमदाबाद