Saturday, December 2, 2017

सद्गुणों का गुलदस्ता था – युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी का जीवन - Yuvacharya Shri Madhukar Muni Ji

सद्गुणों का गुलदस्ता था – युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी का जीवन

श्रमण संघीय प्रथम युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. सा. “मधुकर” श्रमण संघ ही नहीं, अपितु जिनशासन की महान विभूति थे । आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी महाराज ने युवाचार्य श्री जी के अदभूत गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है – 

युवाचार्य श्री जी में हजारों गुण थे, पर सर्वतो महान सद्गुण था, सरलता ! सरलता के बिना जीवन में सहज सौम्यता नहीं आ पाती ! सरलता का अर्थ है – वक्रता का अभाव ! जीवन की शुद्धि ऋजुता में है, वक्रता में नहीं । पूज्य युवाचार्य श्री के जीवन के कण कण में सरलता और भद्रता प्रतिबिम्बित थी । जो अंदर था वही बाहर । उनमें किसी प्रकार का दुराव और छिपाव नहीं था । उनका सिद्धान्त था – सरल बनो, सुखी रहो ! शब्दों तथा भाषा का हेर –फेर उन्होने सीखा ही नहीं था । मन की बात सीधी होठों पर उतर आती थी । वे सरलता और सौम्यता कि जीती – जागती प्रतिमा थे । उनके पावन जीवन का यह पहलू कितना स्मरणीय है ।

युवाचार्य श्री विनम्रता की साक्षात मूर्ति थे । अहंकार और साधुता का परस्पर बैर है । धर्म का मूल ही विनय है । युवाचार्य श्री नम्र ही नहीं, विनम्र थे । वे जब भी मिलते, मुक्त हृदय से मिलते । युवाचार्य जैसे गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होने पर भी अहंकार की काली – कजरारी रेखा उनके जीवन को धूमिल नहीं कर सकी ।

युवाचार्य श्री कि एक महत्वपूर्ण विशेषता यही थी कि वे अनासक्त योगी थे । संसार की मोह – माय का जादुई असर इतना अधिक गहरा है कि बड़े बड़े साधक उसके प्रभाव से प्रभावित हो जाते हैं । पर आपका जीवन उसका अपवाद रहा है । आप कमल की तरह सदा निर्लिप्त रहे । आपके उपदेश से अनेक संस्थाएँ स्थापित हुई, पर उन संस्थाओं में आपकी आसक्ति कभी भी नहीं रही ।

युवाचार्य श्री गुणानुरागी थे । जिस किसी में भी यदि कोई गुण देखते तो उसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते । उनका गुणानुरागी मानस युधिष्ठिर की तरह किसी में दोष नहीं देखता था । वे तो कृष्ण की भांति अशुभ में से भी शुभ को ग्रहण करने वाले थे ।
फूलों से उन्हें प्यार था, पर उन्होने अपने जीवन में काँटों से कभी द्वेष नहीं किया । वे कुसुम से अभी अधिक कोमल थे, किन्तु कर्तव्य पालन में व्रज से भी अधिक कठोर थे । वे स्वजन को तो स्वजन मानते ही थे, पर परजन को भी स्वजन मानते थे । सभी उनके लिए अपने थे, पराया कोई नहीं था ।


उनके मुखमण्डल पर सदा मुस्कान अठखेलियाँ करती थी । उनका हृदय हमेशा प्रेम से सराबोर रहता था । वे सदा प्रसन्न रहते थे । वे शांति के देवता थे । जब भी देखिये – गुलाब की तरह चेहरा खिला हुआ । उनके चेहरे पर सहज मुस्कान चमकती रहती थी ।

चाहे कोई कुछ भी कह जाये, ऊंची नीची बात बोल जाये, पर मजाल जो उनके चेहरे पर एक भी शिकन आ जाये । उनका मानसिक संतुलन कभी इधर उधर नहीं होता था । आवेश, रोष तथा जोश किसे कहते हैं ? ....यह वे कभी जान नहीं पाये । 
हँसते और मुस्कराते हुए विष को पी जाना उस विषपायी को अच्छी तरह से आता था । यही कारण है कि उनका कोई दुश्मन नहीं थे । वे अजातशत्रु थे ।

उनका जीवन गुणों का गुलदस्ता था । वे ज्ञानी थे, ध्यानी थे, बहुश्रुत थे, पंडित रत्न थे । उनमें सद्गुण इतने अधिक थे, जिन्हें यह वाचा कह नहीं पा रही ।
यदि एक शब्द में कहूँ तो वे अपने ढंग के एक ही निराले महापुरुष थे । अदभूत था उनका व्यक्तित्व और असाधारण था उनका कृतित्व ! इसलिए वे सभी के लिए वंदनीय और अभिनंदनीय है ।                               -संकलन – जैन संजीव नाहटा 

Friday, April 21, 2017

RaajGurumata Shri Umrav kunwar Ji M.Sa "ARCHANA" - Jain Sadhwi


परम श्रद्धेया काश्मीर प्रचारिका, राजगुरुमाता श्री उमरावकुंवर जी म. सा. अर्चना


            जब ये खबर सुनी कि पुज्या गुरुणी श्री अर्चना जी म.सा. का संथारा सहित पंडित मरण हो गया, ह्रदय को गहरा आघात लगा। कुछ देर के लिए ऐसा लगा कि सब कुछ खत्म हो गया। मन गहरे विषाद से भर गया।
            मेरे ह्रदय में उनके प्रति केवल इसीलिए श्रद्धा नहीं है कि वे हमारे कुल परम्परा के गुरुदेव युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म.सा. की प्रमुख शिष्या है, अपितु उनके सहज, नैसर्गिक गुणों के कारण उनके प्रति बहुमान है। पिछले कई वर्षों से निरंतर मैं उनकी कृपा दृष्टि का पात्र हूँ। महासती जी के सम्पर्क मैं आने से पहले भी कई साधु संतों का सानिध्य प्राप्त किया और आज भी उनके आदेशानुसार सभी सम्प्रदायों के संतों आदि से मेरा सम्पर्क है; चूंकि वे सभी सम्प्रदायों में समन्वय को प्रधानता देती थी। महासती जी के दिव्य सद्गुणों को देखकर ही मेरा उनके प्रति पक्षपात है। कहना होगा कि वे एक दिव्य विभूति थी, ऐसे संत बार बार जन्म नहीं लेते। यूं तो उनकी यशोगाथा गाना मेरे बस की बात नहीं है, पर कुछ बिन्दुओं से उनके जीवन का रेखाचित्र बनाने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ
            कैसे करूं गुणगान तुम्हारा, शब्दों की बारात नहीं है।
            सागर को बाँहों में भरना, मेरे बस की बात नहीं है।

वात्सल्य विभूतिः-
            सन् 2000 के कुचेरा चातुर्मास के बाद युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. सा. की पुण्यतिथी का कार्यक्रम चल रहा था। काफी अच्छी संख्या में लोग उपस्थित थे। बाहर के कई संघ आदि भी आये हुए थे। काफी समय तक कार्यक्रम चला। दूर दूर से आये वक्ताओं, श्रद्धालुओं ने भी अपनी ओर से श्रद्धाजंलि दी। मेड़ता शहर की कुछ नन्हीं बालिकायें भी अपनी भावना व्यक्त करना चाहती थी, परंतु समय की सीमा के कारण मंत्री जी ने उनको बोलने का समय नहीं दिया, मात्र नाम बोलकर क्षमा मांग ली। सबसे अंत में गुरुणी जी के प्रवचन का समय आया तो महासती जी ने कहा कि पहले उन नन्हीं बालिकाओं को बोलने का अवसर दीजिये, वे बहुत दूर से भक्ति भावना लेकर आई हैं। अगर इन्हें अवसर नहीं दिया तो इनका दिल टूट जायेगा और भविष्य में इनकी प्रतिभा कुंठित होकर रह जायेगी। पुज्या श्री जी ने स्वयं से ज्यादा उन बालिकाओं की भावना को प्रमुखता दी। जैसे विवाह समारोह की धुमधाम में पशुओं की चीख पुकार सुनने वाले कान तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ के पास ही थे क्योंकि वे तीर्थंकर की आत्मा थे, जागृत थे, ठीक इसी प्रकार उन बालिकाओं के अंर्तमन की आवाज जानने वाला ह्रदय महासती जी के पास ही था। बच्चों के प्रति इतना वात्सल्य भाव देखकर मैं अभिभूत हो गया। ये मेरे प्रथम दर्शन तो नहीं थे, परंतु इस घटना के बाद मेरा मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया।

विनम्रताः-
            अपने से बड़ों के प्रति तो प्रायः सभी विनम्र रहते हैं, परंतु अपने से छोटों के साथ भी विनम्रतापूर्ण व्यवहार आपका विशिष्ट गुण था। छोटा हो या बड़ा, जैन हो या अजैन, सभी के नाम के साथ जीलगाकर ही बात करते थें। और तो और अपने महासती मंडल की छोटी सतियों को भी जीलगाकर ही संबोधित करते थे। अपने से छोटों को भी तुकी जगह आपलगाकर संबोधित करते थे। दर्शनार्थी, श्रद्धालु जब भी दर्शन करने आते तो प्रथम दृष्टि में आप दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करते थे, जिससे सामने वाले का ह्रदय स्वतः ही श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता था। ज्ञान का अतिचार है मान; परंतु विद्धता के साथ विनम्रता आपकी खूबी थी। आपका ज्ञान असीमित था, विद्धता अद्धितीय थी। हजारों थोकड़े, शास्त्र ज्ञान, आगमों का ज्ञान, हजारों भजन, मुक्तक, श्लोक, दोहे आदि इतनी वय में भी कंठस्थ थे, जैसे साक्षात सरस्वती विराजमान हो।




प्राणी मात्र की सेवाः-
            स्वकल्याण के साथ परकल्याण भी संतों का प्रमुख लक्ष्य होता है। आपके मन में प्राणी मात्र के प्रति अपनत्व की उदार भावना थी। किसी का भी कष्ट, पीड़ा, दुःख आपको अपना ही दुःख लगता था। सबके प्रति करूणा की भावना के कारण ही आप दुःखीजनों का दुःख करने के लिए सतत प्रयासरत रहती थी। आपके द्धारा प्रेरित अधिकांश कार्य जनसेवा के ही होते थे। गौशाला, चिकित्सालय, विद्यालय, स्वधर्मी सहायता आदि कार्यों में आप विशेष रूचि रखती थी।

योग-ध्यान-साधनाः-
            आपकी ध्यान साधना जबरदस्त थी। आप अधिकांश समय ध्यान में ही बिताती थी। आपने ध्यान द्धारा अपने परम लक्ष्य को प्राप्त किया था। आप दर्शन के लिए आने वाले दर्शनार्थियों से, श्रावकों से ध्यान एवं योग के बारे में अधिक चर्चा करती थी। आप की उत्कृष्ट योग साधना के कारण आपको महायोगेश्वरीएवं अध्यात्मयोगिनीअलंकरण से विभूषित किया गया।

गुरु की साकार मूर्तिः-
            युवाचार्यश्री के देवलोकगमन के पश्चात संघ को जो क्षति हुई, जो कमी हुई, उस कमी को काफी हद तक आपने ही कम किया। गुरुओं के दिव्य गुणों को आपने स्वयं में साकार कर धर्म की, संघ की खूब प्रभावना की। मिश्री जैसी मीठी बोली, आगम प्रकाशन साहित्य अभिवृद्धि, अनुशासनमय संयम यात्रा, सहज सरलता, बच्चों सा निर्मल मन, बिलकुल मधुकर जी की छवि आपमें दिखती थी। क्रोध तो दूर, तनाव, खिन्नता, विषाद आदि भी चेहरे पर नहीं झलकते थे। हमेशा एक सी प्रसन्न, अपूर्व सौम्यता युक्त, मुस्कुराती भावभंगिमा आपके चेहरे पर चमकती थी। आप हमसे अक्सर कहा करते थे, जीवन में तनाव, समस्यायें तो आयेंगी ही, हो सकता है कभी आँख से आँसू भी छलक जाये परंतु चेहरे से मुस्कराहट कभी नहीं जानी चाहिये।
कुछ दिनों की अस्वस्थता के बाद 22 अप्रैल 2009 में अजमेर में आप संथारा सहित देवलोक गमन कर गए ।  आपके अंतिम समय में भी भेद-विज्ञान द्धारा आत्मा - शरीर की भिन्नता आपने जान ली थी। आपके अंतिम दर्शन के समय ऐसा लगा जैसे तीर्थंकर आत्म ध्यान में लीन हो।


समन्वयसाधिकाः-
            सभी धर्मों के प्रति आपके मन में आदर भाव था। सभी धर्मों, सम्प्रदायों में समन्वय के लिए आपने विशेष प्रयत्न किये। आप कट्टरता, आग्रहभाव, पद की आकांक्षा आदि से परे थी। आपके प्रवचनों में नैतिक मूल्यों पर विशेष जोर होता था। आपका कथन था कि ईमानदारी ही आध्यात्मिक गुफा का प्रवेशद्धार है। सहनशीलता पर आपका कहना था कि जिसको सहना आ गया, उसको रहना आ गया। आपने स्वयं ने भी लम्बे संयमी जीवन में अनेकों कष्टों, विपतियों का हंसते हंसते सामना किया था। काश्मीर जैसे अनार्य, भीषण उपसर्गों वाले स्थान में जाने वाली आप प्रथम जैन साध्वी थी। ढृढ आत्मशक्ति, असीम धैर्य, जबरदस्त सहनशीलता और अदम्य साहस के कारण ही यह संभव हुआ। जम्मु-काश्मीर प्रवास में आपने अनेकों मांसाहारियों को शाकाहारी बनाया और महावीर के अहिंसा धर्म का जन जन में प्रचार किया।

            आपने जनकल्याण के साथ साथ जप-तप-योग-ध्यान साधना द्धारा अपना परम लक्ष्य प्राप्त किया। प्रतिपल अंतजागृति के द्धारा अपना और अनेको प्राणियों का जीवन सार्थक बनाया। आपके ही शब्दों में कहूं तो

      जग का खेल रहेगा चालू, हमको पार्ट अदा कर जाना।
      बाड़ी सदा रहेगी खूली, पंछी को एक दिन उड़ जाना।

हम भी आपके बताये मार्ग पर चल कर ही सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
                                                                                                           
                                                                                                          महावीर चन्द नाहटा
                                                                                                          संजीव, श्रैणिक नाहटा

                                                                                                            अहमदाबाद