Saturday, December 2, 2017

सद्गुणों का गुलदस्ता था – युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी का जीवन - Yuvacharya Shri Madhukar Muni Ji

सद्गुणों का गुलदस्ता था – युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी का जीवन

श्रमण संघीय प्रथम युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. सा. “मधुकर” श्रमण संघ ही नहीं, अपितु जिनशासन की महान विभूति थे । आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी महाराज ने युवाचार्य श्री जी के अदभूत गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है – 

युवाचार्य श्री जी में हजारों गुण थे, पर सर्वतो महान सद्गुण था, सरलता ! सरलता के बिना जीवन में सहज सौम्यता नहीं आ पाती ! सरलता का अर्थ है – वक्रता का अभाव ! जीवन की शुद्धि ऋजुता में है, वक्रता में नहीं । पूज्य युवाचार्य श्री के जीवन के कण कण में सरलता और भद्रता प्रतिबिम्बित थी । जो अंदर था वही बाहर । उनमें किसी प्रकार का दुराव और छिपाव नहीं था । उनका सिद्धान्त था – सरल बनो, सुखी रहो ! शब्दों तथा भाषा का हेर –फेर उन्होने सीखा ही नहीं था । मन की बात सीधी होठों पर उतर आती थी । वे सरलता और सौम्यता कि जीती – जागती प्रतिमा थे । उनके पावन जीवन का यह पहलू कितना स्मरणीय है ।

युवाचार्य श्री विनम्रता की साक्षात मूर्ति थे । अहंकार और साधुता का परस्पर बैर है । धर्म का मूल ही विनय है । युवाचार्य श्री नम्र ही नहीं, विनम्र थे । वे जब भी मिलते, मुक्त हृदय से मिलते । युवाचार्य जैसे गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होने पर भी अहंकार की काली – कजरारी रेखा उनके जीवन को धूमिल नहीं कर सकी ।

युवाचार्य श्री कि एक महत्वपूर्ण विशेषता यही थी कि वे अनासक्त योगी थे । संसार की मोह – माय का जादुई असर इतना अधिक गहरा है कि बड़े बड़े साधक उसके प्रभाव से प्रभावित हो जाते हैं । पर आपका जीवन उसका अपवाद रहा है । आप कमल की तरह सदा निर्लिप्त रहे । आपके उपदेश से अनेक संस्थाएँ स्थापित हुई, पर उन संस्थाओं में आपकी आसक्ति कभी भी नहीं रही ।

युवाचार्य श्री गुणानुरागी थे । जिस किसी में भी यदि कोई गुण देखते तो उसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते । उनका गुणानुरागी मानस युधिष्ठिर की तरह किसी में दोष नहीं देखता था । वे तो कृष्ण की भांति अशुभ में से भी शुभ को ग्रहण करने वाले थे ।
फूलों से उन्हें प्यार था, पर उन्होने अपने जीवन में काँटों से कभी द्वेष नहीं किया । वे कुसुम से अभी अधिक कोमल थे, किन्तु कर्तव्य पालन में व्रज से भी अधिक कठोर थे । वे स्वजन को तो स्वजन मानते ही थे, पर परजन को भी स्वजन मानते थे । सभी उनके लिए अपने थे, पराया कोई नहीं था ।


उनके मुखमण्डल पर सदा मुस्कान अठखेलियाँ करती थी । उनका हृदय हमेशा प्रेम से सराबोर रहता था । वे सदा प्रसन्न रहते थे । वे शांति के देवता थे । जब भी देखिये – गुलाब की तरह चेहरा खिला हुआ । उनके चेहरे पर सहज मुस्कान चमकती रहती थी ।

चाहे कोई कुछ भी कह जाये, ऊंची नीची बात बोल जाये, पर मजाल जो उनके चेहरे पर एक भी शिकन आ जाये । उनका मानसिक संतुलन कभी इधर उधर नहीं होता था । आवेश, रोष तथा जोश किसे कहते हैं ? ....यह वे कभी जान नहीं पाये । 
हँसते और मुस्कराते हुए विष को पी जाना उस विषपायी को अच्छी तरह से आता था । यही कारण है कि उनका कोई दुश्मन नहीं थे । वे अजातशत्रु थे ।

उनका जीवन गुणों का गुलदस्ता था । वे ज्ञानी थे, ध्यानी थे, बहुश्रुत थे, पंडित रत्न थे । उनमें सद्गुण इतने अधिक थे, जिन्हें यह वाचा कह नहीं पा रही ।
यदि एक शब्द में कहूँ तो वे अपने ढंग के एक ही निराले महापुरुष थे । अदभूत था उनका व्यक्तित्व और असाधारण था उनका कृतित्व ! इसलिए वे सभी के लिए वंदनीय और अभिनंदनीय है ।                               -संकलन – जैन संजीव नाहटा 

Friday, April 21, 2017

RaajGurumata Shri Umrav kunwar Ji M.Sa "ARCHANA" - Jain Sadhwi


परम श्रद्धेया काश्मीर प्रचारिका, राजगुरुमाता श्री उमरावकुंवर जी म. सा. अर्चना


            जब ये खबर सुनी कि पुज्या गुरुणी श्री अर्चना जी म.सा. का संथारा सहित पंडित मरण हो गया, ह्रदय को गहरा आघात लगा। कुछ देर के लिए ऐसा लगा कि सब कुछ खत्म हो गया। मन गहरे विषाद से भर गया।
            मेरे ह्रदय में उनके प्रति केवल इसीलिए श्रद्धा नहीं है कि वे हमारे कुल परम्परा के गुरुदेव युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म.सा. की प्रमुख शिष्या है, अपितु उनके सहज, नैसर्गिक गुणों के कारण उनके प्रति बहुमान है। पिछले कई वर्षों से निरंतर मैं उनकी कृपा दृष्टि का पात्र हूँ। महासती जी के सम्पर्क मैं आने से पहले भी कई साधु संतों का सानिध्य प्राप्त किया और आज भी उनके आदेशानुसार सभी सम्प्रदायों के संतों आदि से मेरा सम्पर्क है; चूंकि वे सभी सम्प्रदायों में समन्वय को प्रधानता देती थी। महासती जी के दिव्य सद्गुणों को देखकर ही मेरा उनके प्रति पक्षपात है। कहना होगा कि वे एक दिव्य विभूति थी, ऐसे संत बार बार जन्म नहीं लेते। यूं तो उनकी यशोगाथा गाना मेरे बस की बात नहीं है, पर कुछ बिन्दुओं से उनके जीवन का रेखाचित्र बनाने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ
            कैसे करूं गुणगान तुम्हारा, शब्दों की बारात नहीं है।
            सागर को बाँहों में भरना, मेरे बस की बात नहीं है।

वात्सल्य विभूतिः-
            सन् 2000 के कुचेरा चातुर्मास के बाद युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. सा. की पुण्यतिथी का कार्यक्रम चल रहा था। काफी अच्छी संख्या में लोग उपस्थित थे। बाहर के कई संघ आदि भी आये हुए थे। काफी समय तक कार्यक्रम चला। दूर दूर से आये वक्ताओं, श्रद्धालुओं ने भी अपनी ओर से श्रद्धाजंलि दी। मेड़ता शहर की कुछ नन्हीं बालिकायें भी अपनी भावना व्यक्त करना चाहती थी, परंतु समय की सीमा के कारण मंत्री जी ने उनको बोलने का समय नहीं दिया, मात्र नाम बोलकर क्षमा मांग ली। सबसे अंत में गुरुणी जी के प्रवचन का समय आया तो महासती जी ने कहा कि पहले उन नन्हीं बालिकाओं को बोलने का अवसर दीजिये, वे बहुत दूर से भक्ति भावना लेकर आई हैं। अगर इन्हें अवसर नहीं दिया तो इनका दिल टूट जायेगा और भविष्य में इनकी प्रतिभा कुंठित होकर रह जायेगी। पुज्या श्री जी ने स्वयं से ज्यादा उन बालिकाओं की भावना को प्रमुखता दी। जैसे विवाह समारोह की धुमधाम में पशुओं की चीख पुकार सुनने वाले कान तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ के पास ही थे क्योंकि वे तीर्थंकर की आत्मा थे, जागृत थे, ठीक इसी प्रकार उन बालिकाओं के अंर्तमन की आवाज जानने वाला ह्रदय महासती जी के पास ही था। बच्चों के प्रति इतना वात्सल्य भाव देखकर मैं अभिभूत हो गया। ये मेरे प्रथम दर्शन तो नहीं थे, परंतु इस घटना के बाद मेरा मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया।

विनम्रताः-
            अपने से बड़ों के प्रति तो प्रायः सभी विनम्र रहते हैं, परंतु अपने से छोटों के साथ भी विनम्रतापूर्ण व्यवहार आपका विशिष्ट गुण था। छोटा हो या बड़ा, जैन हो या अजैन, सभी के नाम के साथ जीलगाकर ही बात करते थें। और तो और अपने महासती मंडल की छोटी सतियों को भी जीलगाकर ही संबोधित करते थे। अपने से छोटों को भी तुकी जगह आपलगाकर संबोधित करते थे। दर्शनार्थी, श्रद्धालु जब भी दर्शन करने आते तो प्रथम दृष्टि में आप दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करते थे, जिससे सामने वाले का ह्रदय स्वतः ही श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता था। ज्ञान का अतिचार है मान; परंतु विद्धता के साथ विनम्रता आपकी खूबी थी। आपका ज्ञान असीमित था, विद्धता अद्धितीय थी। हजारों थोकड़े, शास्त्र ज्ञान, आगमों का ज्ञान, हजारों भजन, मुक्तक, श्लोक, दोहे आदि इतनी वय में भी कंठस्थ थे, जैसे साक्षात सरस्वती विराजमान हो।




प्राणी मात्र की सेवाः-
            स्वकल्याण के साथ परकल्याण भी संतों का प्रमुख लक्ष्य होता है। आपके मन में प्राणी मात्र के प्रति अपनत्व की उदार भावना थी। किसी का भी कष्ट, पीड़ा, दुःख आपको अपना ही दुःख लगता था। सबके प्रति करूणा की भावना के कारण ही आप दुःखीजनों का दुःख करने के लिए सतत प्रयासरत रहती थी। आपके द्धारा प्रेरित अधिकांश कार्य जनसेवा के ही होते थे। गौशाला, चिकित्सालय, विद्यालय, स्वधर्मी सहायता आदि कार्यों में आप विशेष रूचि रखती थी।

योग-ध्यान-साधनाः-
            आपकी ध्यान साधना जबरदस्त थी। आप अधिकांश समय ध्यान में ही बिताती थी। आपने ध्यान द्धारा अपने परम लक्ष्य को प्राप्त किया था। आप दर्शन के लिए आने वाले दर्शनार्थियों से, श्रावकों से ध्यान एवं योग के बारे में अधिक चर्चा करती थी। आप की उत्कृष्ट योग साधना के कारण आपको महायोगेश्वरीएवं अध्यात्मयोगिनीअलंकरण से विभूषित किया गया।

गुरु की साकार मूर्तिः-
            युवाचार्यश्री के देवलोकगमन के पश्चात संघ को जो क्षति हुई, जो कमी हुई, उस कमी को काफी हद तक आपने ही कम किया। गुरुओं के दिव्य गुणों को आपने स्वयं में साकार कर धर्म की, संघ की खूब प्रभावना की। मिश्री जैसी मीठी बोली, आगम प्रकाशन साहित्य अभिवृद्धि, अनुशासनमय संयम यात्रा, सहज सरलता, बच्चों सा निर्मल मन, बिलकुल मधुकर जी की छवि आपमें दिखती थी। क्रोध तो दूर, तनाव, खिन्नता, विषाद आदि भी चेहरे पर नहीं झलकते थे। हमेशा एक सी प्रसन्न, अपूर्व सौम्यता युक्त, मुस्कुराती भावभंगिमा आपके चेहरे पर चमकती थी। आप हमसे अक्सर कहा करते थे, जीवन में तनाव, समस्यायें तो आयेंगी ही, हो सकता है कभी आँख से आँसू भी छलक जाये परंतु चेहरे से मुस्कराहट कभी नहीं जानी चाहिये।
कुछ दिनों की अस्वस्थता के बाद 22 अप्रैल 2009 में अजमेर में आप संथारा सहित देवलोक गमन कर गए ।  आपके अंतिम समय में भी भेद-विज्ञान द्धारा आत्मा - शरीर की भिन्नता आपने जान ली थी। आपके अंतिम दर्शन के समय ऐसा लगा जैसे तीर्थंकर आत्म ध्यान में लीन हो।


समन्वयसाधिकाः-
            सभी धर्मों के प्रति आपके मन में आदर भाव था। सभी धर्मों, सम्प्रदायों में समन्वय के लिए आपने विशेष प्रयत्न किये। आप कट्टरता, आग्रहभाव, पद की आकांक्षा आदि से परे थी। आपके प्रवचनों में नैतिक मूल्यों पर विशेष जोर होता था। आपका कथन था कि ईमानदारी ही आध्यात्मिक गुफा का प्रवेशद्धार है। सहनशीलता पर आपका कहना था कि जिसको सहना आ गया, उसको रहना आ गया। आपने स्वयं ने भी लम्बे संयमी जीवन में अनेकों कष्टों, विपतियों का हंसते हंसते सामना किया था। काश्मीर जैसे अनार्य, भीषण उपसर्गों वाले स्थान में जाने वाली आप प्रथम जैन साध्वी थी। ढृढ आत्मशक्ति, असीम धैर्य, जबरदस्त सहनशीलता और अदम्य साहस के कारण ही यह संभव हुआ। जम्मु-काश्मीर प्रवास में आपने अनेकों मांसाहारियों को शाकाहारी बनाया और महावीर के अहिंसा धर्म का जन जन में प्रचार किया।

            आपने जनकल्याण के साथ साथ जप-तप-योग-ध्यान साधना द्धारा अपना परम लक्ष्य प्राप्त किया। प्रतिपल अंतजागृति के द्धारा अपना और अनेको प्राणियों का जीवन सार्थक बनाया। आपके ही शब्दों में कहूं तो

      जग का खेल रहेगा चालू, हमको पार्ट अदा कर जाना।
      बाड़ी सदा रहेगी खूली, पंछी को एक दिन उड़ जाना।

हम भी आपके बताये मार्ग पर चल कर ही सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
                                                                                                           
                                                                                                          महावीर चन्द नाहटा
                                                                                                          संजीव, श्रैणिक नाहटा

                                                                                                            अहमदाबाद

Friday, January 8, 2016

Great Men's View on Yuvacharya Shri Madhukar Muni

बहुश्रुत, पंडित रत्न, आगमवेता श्रमण संघीय प्रथम युवाचार्य
श्री मिश्रीमल जी महाराज मधुकर की 102 वीं जनम जयंती पर विशेष 24-12-2015

युवाचार्य श्री जी के बहुआयामी व्यक्तित्त्व के बारे में महान साधक पुरुषों के विचार –
आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी महाराज –
युवाचार्य श्री विनय, ऋजुता, मृदुता एवं सौम्यता के साकार प्रतीक थे । उनका व्यक्तित्त्व वास्तव में बड़ा मोहक एवं आकर्षक था । मुझे बड़ा परितोष था कि मैंने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अत्यंत कुशल, समर्थ और सुयोग्य व्यक्ति का चयन किया है । साथ ही सैद्धांतिक, आनुशासनिक दृढता और दक्षता का उनमें अपूर्व समन्वय था, जिसकी एक शासन नायक में नितांत आवश्यकता होती है ।

राष्ट्रसंत उपाध्याय श्री अमर मुनि जी महाराज –
सहज स्नेहशीलता, हार्दिक सदभावना एवं निर्मल सरलता की जीवंत मूर्ति रहे हैं श्री मधुकर जी । अपने यशस्वी जीवन में अनेक पदों को सुशोभित करते हुये श्रमण संघ के युवाचार्य पद तक पहुंचे । पद- प्रतिष्ठा का अहंकार प्राय घेर ही लेता है मानव मन को । परंतु श्री मधुकर जी अहंकार की इस दुर्निवार लिप्तता से अंत तक निर्लिप्त ही रहे ।
प्रखर वक्ता कविरत्न श्री केवल मुनि जी महाराज –
युवाचार्य श्री विद्वान भी थे, शांत और विनम्र भी । किसी की भी निंदा, आलोचना या विकथा से अलिप्त रहते थे । अधिकतर अपने ही स्वाध्याय, लेखन – मनन और वाचन में समय को सार्थक करते थे । आपश्री का हृदय भी अति सरल था, न छल, प्रपंच, न द्वंद ! वाणी भी मधुर और संयत । उनका मधुर और प्रशांत व्यक्तित्त्व युग युग तक यादों में समाया रहेगा ।

मरुधर केसरी प्रवर्तक श्री मिश्रीमल जी महाराज
जैन जगत की ज्योति, गज़ब कीनो अंधियारो। पल में लियो उठाय, मधुकर हार हिया रो ॥
युवाचार्य जाता रहया, भक्त रहे बिलखाय।  श्रमण संघ की डोर अब, कौन संभाले आय ॥

ज्योतिषाचार्य उपाध्याय श्री कस्तूरचंद जी महाराज –
युवाचार्य श्री संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के अच्छे माने हुये बहुश्रुत विद्वान मुनिराज थे, तथा संयम साधना में भी सदा जागरूक रहते थे । साहित्य भंडार को भी आपश्री ने अभिनव पुस्तकें एवं ग्रंथ लिखकर समर्पित किए हैं ।

आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी महाराज –
युवाचार्य श्री में हजारों गुण थे, पर सर्वतो महान सद्गुण था, सरलता। काव्य की भाषा में कहा जाये तो वे नख – शिख सरल थे, निरदम्भ थे । उनका सिद्धान्त था – सरल बनो, सुखी रहो । युवाचार्य श्री की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि वे अनासक्त योगी थे । वे महान गुणानुरागी थे । वे सदा प्रसन्न रहते थे । वे शांति के देवता थे । सभी उनके लिए अपने थे, पराया कोई नहीं था । उनके गुणों की सूची बहुत ही विस्तृत है । अद्भूत था उनका व्यक्तित्त्व, और असाधारण था उनका कृतत्व ।   

आचार्य श्री डॉ श्री शिव मुनि जी महाराज –
युवाचार्य श्री मधुकर मुनि में सच्चे साधक के सभी गुण विध्यमान थे। सरलता, सौम्यता, दूरदर्शिता, सांप्रदायिक भेदभाव से दूर रह कर वे सभी को मधुरता प्रदान करते रहे हैं । भगवान महावीर के शब्दों में धर्म का मूल है विनय और वह विनय आपके अंतकरण से प्रस्फुटित रही है । जब आप श्री जी को अपने संघ का युवाचार्य बनाया गया तो आपकी अंतरात्मा ने स्वयं स्वीकार किया – मैं अनुशासन में रहना जानता हूँ, पर दूसरों पर अनुशासन करना मेरी आदत नहीं है । यह आपकी विलक्षण विनम्रता थी – छोटों के साथ स्नेह, बड़ों से विनम्रता ।
मधुकर शिष्य, श्रमण संघीय सलाहकार श्री विनय मुनि जी महाराज भीम
चहुंमुखी व्यक्तित्त्व के प्रभावशाली धनी थे गुरुदेव । पद का बिलकुल भी मोह या ममत्व नहीं था । अपनी संप्रदाय के आचार्य पद पर रहे । श्रमण संघ के उपाध्याय पद पर रहे, युवाचार्य पद को सुशोभित किया । फिर भी अभिमान आपको रंचमात्र छुआ तक नहीं । अपने नेत्रों से पूज्य गुरुवर को नजदीक से देखा है – कितने मधुर ! कितने विनम्र !

मधुकर शिष्या काश्मीर प्रचारिका, राजगुरुमाता श्री उमराव कुँवर जी म. सा. अर्चना
यस्य सर्वे समारंभा, धर्मस्योन्नतिहेतवे । तस्मे मधुकरायेव, युवाचार्याय वै नमः ॥ 
धन्य है वह देश जहां युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी महाराज मधुकर जैसे महामुनियों ने जन्म लिया । धन्य है वह समाज, जो ऐसे महामुनि के वचनामृत से आप्लावित हुआ और धन्य है वह साधु समाज, जो आप जैसे मुनि श्री जी के उपदेश वचनों को अपना अवलंबन बनाकर मानव – मंगल की दिशा में उत्तरोतर अग्रसर है ।

प्रवर्तक वाणी भूषण श्री रतन मुनि जी महाराज –
आचार्य श्री आनंद ऋषि जी महाराज के समक्ष श्रमण संघ का उत्तराधिकार देने की बात उठी । खोज को अधिक दूर नहीं जाना पड़ा । निगाहों में शीघ्र ही एक मूर्त रूप उभर उठा । वह मूर्त रूप था श्री मधुकर मुनि जी का । सर्वत्र आनंद की लहर छा गयी, प्रसार पा गयी । प्रतिभा सम्पन्न, प्रशांत मन, बहुश्रुत संत को युवाचार्य के रूप में पाकर समाज खिल उठा ।

गणेश मुनि जी महाराज शास्त्री
युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी महाराज मधुकर का संत जीवन, श्रमण परंपरा के प्रतिनिधि साधक जैसा रहा है । उनके बाह्य व्यक्तित्त्व में प्रभावपूर्ण आकर्षण भरा था, तो अन्तर में था एक निर्विकार, मधुर और सरल गांभीर्य ।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी –
युवाचार्य श्री जी ने भारतीय संस्कृति कि अनुपम सेवा की है, वह युगों युगों तक चिर स्मरणीय रहेगी । उनके आदर्शों पर चलना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी । मैं बहुत ही भाग्यशाली हूँ कि पूज्य श्री के अंतिम संस्कार के समय पुण्य सलिला गोदावरी के तट पर नासिक क्षेत्र में उपस्थित होकर श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ ।
जैन साहित्य संपादक श्रीचंद सुराना सरस
युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी महाराज स्थानकवासी समाज के परम श्रद्धेय संत पुरुष थे, जिनके प्रति सम्पूर्ण समाज की , छोटे – बड़े सभी की अपार श्रद्धा एवं असीम आस्था थी । वे अजातशत्रु थे । विद्वता और विनम्रता का मधुर संगम था उनमें । वे एक ऐसे महावृक्ष थे जिसकी जीवन डाली पर अगणित गुण – सुमन फल – फूल कर संसार को सौरभ और स्वाद का अमृत बांटते रहे ।  

साभार – युवाचार्य श्री मधुकर मुनि स्मृति ग्रंथ ।

संकलन – संजीव कुमार महावीरचंद नाहटा, अहमदाबाद । 

Monday, February 25, 2013

Yuvacharya Shri Madhukar Muni

श्रमण संघीय प्रथम युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी . सा. मधुकर संक्षिप्त जीवन दर्शन

जन्म शताब्दी वर्ष 27-12-2012 से 16-12-2013
जिस संत को हजारों-लाखों लोगों की असीम श्रद्धा भक्ति प्राप्त हो और वो उससे बिलकुल ही निस्पृह, अनासक्त तथा सीधा-सरल भाव-युक्त रहे, तो ये ऐसी बात होगी कि गुलाब का फूल तो है, सुगंध और सौन्दर्य भी है, मगर उसमे कांटा नहीं है ।
विद्या के साथ विनय, अधिकार के साथ विवेक, प्रतिष्ठा और लोकश्रद्धा के साथ सरलता आदि ऐसी अद्भूत बाते हैं, जो किसी विरले मे ही पायी जाती है। मुनि श्री मिश्रीमल जी . सा. मधुकरमें ये विरल विशेषताए देखकर मन श्रद्धा और आश्चर्य से पुलक-पुलक जाता है। उनके जीवन मे गहरे पैठकर देखने पर भी कहीं कटुता, विषमता, छल-छिद्र, अहंकार आदि के कांटे देखने को नहीं मिलेंगे। वे बहुत ही सरल (पर, चतुर) बहुत ही विनम्र (पर, स्वाभिमानी) बहुत ही मधुर (पर, निश्छल) और अनुशासित (पर, कोमल हृदय) श्रमण थे।
पूज्य गुरुदेव श्री का जनम वि. स. 1970 मार्गशीर्ष शुक्ल 14, दिनांक 12 दिसंबर 1913 को जोधपुर के पास तिंवरी ग्राम मे हुआ। आप श्री के पिता का नाम श्री जमनालाल जी धारीवाल (कोठारी) एवं माता जी का नाम तुलसाबाई था। आपका बचपन का नाम मिश्रीमल था। छोटी आयु मे ही आपके सिर से पिता श्री का साया उठ गया।
बचपन के धार्मिक संस्कार --
आप मे बचपन से ही धर्म गुरुओ के प्रति गहरी श्रद्धा भक्ति थी। एक बार स्वामी जी श्री जोरावरमल जी म. सा. व्याख्यान दे रहे थे, तब स्थानक के बाहर सारे बच्चे खेल रहे थे। उस समय गुरुदेव श्री की उम्र 6-7 वर्ष की थी। आपने सभी बच्चों से कहा कि अंदर गुरुदेव व्याख्यान दे रहे है, बाहर मैं भी तुम्हें व्याख्यान सुनाता हूँ। सब बालक बैठ गए। आप मिट्टी का ऊंचा चबूतरा बनाकर बैठे और बच्चो से बोले- मैं तुम्हारा गुरु हूँ, तुम सब मेरे चेले हो, मैं व्याख्यान सुना रहा हूँ। बालक मिश्रीमल के यही धार्मिक संस्कार धीरे धीरे दीक्षा लेने की तैयारी मे रंग गए।
दीक्षा मे बाधा : वैराग्य की जीत --
माता श्री तुलसा जी ने जब ये शुभ संस्कार बालक मिश्रीमल मे देखे, तो उन्होने गुरुदेव श्री जोरावरमल जी म. सा. को दीक्षा देने की प्रार्थना कर दी। परिवार के अन्य लोगों ने आपकी दीक्षा मे कई विघ्न पैदा किये। बात कचहरी तक चली गयी। तब स्वयं मजिस्ट्रेट ने आपकी परीक्षा ली और नन्हें बालक का वैराग्य, और प्रबुद्धता देखकर चकित रह गए और दीक्षा की आज्ञा जारी की। आखिर मे वि. स. 1980 वैशाख शुक्ल 10, दिनांक 26 अप्रैल 1923 को अजमेर के भिणाय ग्राम मे अत्यंत हर्षोल्लास के साथ आचार्य श्री जयमल जी म.सा. की परंपरा मे स्वामी जी श्री जोरावरमल जी म.सा. के पास आपने संयम जीवन अंगीकार किया। आपकी दीक्षा के कुछ समय बाद आपकी माता श्री भी दीक्षित हुई।
गहन अध्ययन --
दीक्षा लेते ही आपने मौन व्रत धारण करके संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, जैन आगम, न्याय, दर्शन आदि का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। आपके अध्ययन में आपके ज्येष्ठ गुरु भ्राता स्वामी जी श्री हजारीमल जी म.सा. और स्वामी जी श्री ब्रजलाल जी का भरपूर सहयोग रहा। लगभग 20-22 वर्षों तक आपने मौन व्रत का पालन किया। इस एकनिष्ठ ज्ञानोपासना के कारण मुनि श्री ने अध्ययन, भाषण और लेखन मे प्रौढ़ता प्राप्त कर ली। आपको प्रज्ञामूर्ति, बहुश्रुत, पंडित रत्न, आगम मनीषी आदि अनेकानेक उपाधियों से संबोधित किया जाने लगा।
जयगच्छ आचार्य पद एवं विसर्जन --
वि. स. 2004, वेशाख कृष्ण 2 को नागौर मे आप श्री को जयमल गच्छ के नवमे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। उस समय आपका नाम मिश्रीमल जी से बदलकर जसवंतमल कर दिया गया- यशवंत-यशस्वी। आचार्य पद ग्रहण करने के पश्चात आपके मन मे एक उथल पुथल भरी बेचेनी ही भरी रही। एकांत साधक, शांति-प्रिय, निर्लिप्त व्यक्ति को कभी भी पद की चाह नहीं होती। यश की लिप्साओ से दूर रहना ही उसे पसंद होता है। आप श्री ने ढृढ़ निश्चय के साथ आचार्य पद का त्याग कर दिया। ये आपकी महानता थी कि आपने अपनी साधना के लिए आचार्य जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद का विसर्जन कर दिया। आपका कहना था कि, मैं अनुशासन मे रह तो सकता हूँ, पर किसी को रख नहीं सकता ।
श्रमण संघ गठन : भूमिका --
इस पद त्याग से स्थानकवासी समाज मे एक बड़ी भारी क्रांति हुई। यह क्रांति थी – पद लिप्सा का लगाव कम और संघ की एकता का प्रबल भाव। इन दोनों विशिष्ट भावों ने वि. स. 2009, सन 1952  के सादडी मे सम्पन्न हुये विशाल साधू सम्मेलन मे कई स्वतंत्र संप्रदायों ने अपने अस्तित्व को गला कर श्रमण संघ को जन्म दिया।
जो पदों से दूर भागता है, पद उसका पीछा नहीं छोड़ते। वि. स. 2033 मे आपका वर्षावास नागौर मे था, तब आपको श्रमण संघ के उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। आपकी विद्वता और योग्यता से प्रभावित होकर, तथा सकल संघ के हार्दिक आग्रह पर वि. स. 2036 श्रावण शुक्ला 1 को आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म.सा. ने 25 जुलाई 1979 को हैदराबाद मे आपको श्रमण संघ का प्रथम युवाचार्य घोषित किया। इससे श्री संघ मे हर्ष की लहर दौड़ गयी। बाद मे वि. स. 2037 चैत्र शुक्ल 10 को जोधपुर मे धूमधाम से युवाचार्य चादर औढाई गई।
मीठा मिश्री : स्वनाम धन्य --
मधुकर मुनि जी मधुर, सरल, विनम्र एवं शांत स्वभाव के गंभीर सत्पुरुष थे। आपकी वाणी से जैसे अमृत वर्षा होती थी। सचमुच मिश्री सी मिठास थी आपके जीवन मे और वचनो मे। मारवाड़ मे अधिकांश श्रद्धालु आपको “मीठा मिश्री’’ नाम से जानते थे। आप स्वनाम धन्य थे – एक बार आप धनारी ग्राम मे पधारे। तब वहाँ एक खारे पानी का कुआं था, आपके चरण प्रभाव से उस कुवे का पानी अमृत समान मीठा हो गया। स्वभाव मे सहज मधुरता - गुणज्ञ दृष्टि होने के कारण आपका उपनाम “मधुकर” था।
देवलोक-गमन --
आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. सा. के हार्दिक आग्रह पर श्रमण संघ को मजबूत बनाने और भावी योजनाओं पर विचार करने के उद्देश्य से आपने मारवाड से महाराष्ट्र की और उग्र विहार किया। इस विहार काल मे आपके 60 वर्षों के संयम साथी – बड़े गुरुभ्राता श्री ब्रजलाल जी म.सा. का धूलिया मे देवलोकगमन हो गया। आप दोनों की जोड़ी राम –लक्ष्मण के जैसी थी। नासिक मे आचार्य श्री के साथ ऐतिहासिक चातुर्मास पूर्ण करने बाद वि. स. 2040, मार्गर्शीर्ष कृष्ण 7, दिनांक 26 नवंबर 1983 को नासिक मे आपका आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। जिस चादर को आचार्य श्री आनंद ऋषि जी म. सा. ने दी, वो युवाचार्य श्री ने आचार्य भगवंत के श्री चरणों मे पुन: समर्पित कर दी। आपके महाप्रयाण से जय गच्छ मे ही नहीं सम्पूर्ण श्रमण संघ मे सन्नाटा छा गया। एक बड़ी रिक्तता आ गयी, जिसकी पूर्ति आज तक नहीं हो पायी।
आगम प्रकाशन : साहित्य सृजन --
पूज्य गुरुदेव श्री मिश्रीमल जी म.सा. “मधुकर” उत्कृष्ट साहित्य शिल्पी थे। आपने दूरगामी दृष्टि रखते हुये 32 आगमों का हिन्दी भाषा मे अनुवाद एवं सम्पादन कर प्रकाशित करवाने जैसा भागीरथी कार्य किया, जिससे सभी संप्रदायों के साधू संत एवं जनमानस लाभान्वित हुये। आपका यह उपकार जैन समाज युगों युगों तक याद रखेगा। (उल्लेखनीय है कि 16 आगमों का प्रकाशन आपके देवलोकगमन के पश्चात आपकी अंतेवासिनी शिष्या श्री उमराव कुँवर जी म. सा. “अर्चना” ने प्रबल पुरुषार्थ से पूर्ण करवाया) आप मधुर प्रवचनकार, कुशल कथाकार भी थे। आपने सरल भाषा मे जैन कथामाला के 51 भाग भी लिखे, जिनकी पूरे भारतवर्ष मे अत्यंत सराहना हुई। अत्यंत श्रम पूर्वक आपके समस्त जैन ग्रन्थों का निचोड़ निकाला जो जैन धर्म की हजार शिक्षाए के रूप मे हमारे सामने है। इसके अतिरिक्त साधना के सूत्र, अंतर की ओर, पर्युषण पर्व प्रवचन, तीर्थंकर महावीर आदि अनेक पुस्तके लिखी। अहिंसा की विजय, तलाश, छाया, आन पर बलिदान, पिंजरे का पंछी आदि अनेकानेक उपन्यास भी आपकी सफल कलम से निकले। आपकी अंतिम शिक्षा - रचना थी – जीओ तो ऐसे जीओ । आपके साहित्य जन-जन हितार्थ थे।
सचमुच मे आप जैसे सरल, विनम्र, गुणज्ञ, एकांतप्रिय, मीठे, विद्वता के साथ विनम्र, साधू विरले ही होते है। ऐसे निर्मल संयम साधक और जिनशासन प्रभावक गुरुदेव के श्री चरणों मे शत शत वंदन --     
 जैन संजीव नाहटा, अहमदाबाद           

Saturday, May 12, 2012

माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता

माँ, माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ, माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है,
माँ, माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है,
माँ, माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है,
माँ, माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ, माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है,
माँ, माँ झुलसते दिलों में कोयल की बोली है,
माँ, माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है,
माँ, माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ, माँ परमात्मा की स्वयं एक गवाही है,
माँ, माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ, माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,
माँ, माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ, माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,
माँ, माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कं धों का नाम है,
माँ, माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,
माँ, माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ, माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,
माँ, माँ चुल्हा-धुँआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ, माँ जिंदगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है,
माँ, माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है,
तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये अध्याय नही है
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,