सद्गुणों का गुलदस्ता था – युवाचार्य श्री मधुकर मुनि
जी का जीवन
श्रमण संघीय प्रथम युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. सा.
“मधुकर” श्रमण संघ ही नहीं, अपितु जिनशासन की महान विभूति थे ।
आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी महाराज ने युवाचार्य श्री जी के अदभूत गुणों का वर्णन
करते हुए लिखा है –
युवाचार्य श्री जी में हजारों गुण थे, पर सर्वतो महान सद्गुण था, सरलता ! सरलता के बिना जीवन में सहज सौम्यता नहीं आ पाती ! सरलता का अर्थ है – वक्रता का अभाव ! जीवन की शुद्धि ऋजुता में है, वक्रता में नहीं । पूज्य युवाचार्य श्री के जीवन के कण कण में सरलता और भद्रता प्रतिबिम्बित थी । जो अंदर था वही बाहर । उनमें किसी प्रकार का दुराव और छिपाव नहीं था । उनका सिद्धान्त था – सरल बनो, सुखी रहो ! शब्दों तथा भाषा का हेर –फेर उन्होने सीखा ही नहीं था । मन की बात सीधी होठों पर उतर आती थी । वे सरलता और सौम्यता कि जीती – जागती प्रतिमा थे । उनके पावन जीवन का यह पहलू कितना स्मरणीय है ।
युवाचार्य श्री जी में हजारों गुण थे, पर सर्वतो महान सद्गुण था, सरलता ! सरलता के बिना जीवन में सहज सौम्यता नहीं आ पाती ! सरलता का अर्थ है – वक्रता का अभाव ! जीवन की शुद्धि ऋजुता में है, वक्रता में नहीं । पूज्य युवाचार्य श्री के जीवन के कण कण में सरलता और भद्रता प्रतिबिम्बित थी । जो अंदर था वही बाहर । उनमें किसी प्रकार का दुराव और छिपाव नहीं था । उनका सिद्धान्त था – सरल बनो, सुखी रहो ! शब्दों तथा भाषा का हेर –फेर उन्होने सीखा ही नहीं था । मन की बात सीधी होठों पर उतर आती थी । वे सरलता और सौम्यता कि जीती – जागती प्रतिमा थे । उनके पावन जीवन का यह पहलू कितना स्मरणीय है ।
युवाचार्य श्री विनम्रता की साक्षात मूर्ति थे । अहंकार
और साधुता का परस्पर बैर है । धर्म का मूल ही विनय है । युवाचार्य श्री नम्र ही नहीं, विनम्र थे । वे जब भी मिलते, मुक्त हृदय से मिलते ।
युवाचार्य जैसे गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होने पर भी अहंकार की काली – कजरारी रेखा
उनके जीवन को धूमिल नहीं कर सकी ।
युवाचार्य श्री कि एक महत्वपूर्ण विशेषता यही थी कि
वे अनासक्त योगी थे । संसार की मोह – माय का जादुई असर इतना अधिक गहरा है कि बड़े बड़े
साधक उसके प्रभाव से प्रभावित हो जाते हैं । पर आपका जीवन उसका अपवाद रहा है । आप कमल
की तरह सदा निर्लिप्त रहे । आपके उपदेश से अनेक संस्थाएँ स्थापित हुई, पर उन संस्थाओं में आपकी आसक्ति कभी भी नहीं रही ।
युवाचार्य श्री गुणानुरागी थे । जिस किसी में भी यदि
कोई गुण देखते तो उसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते । उनका गुणानुरागी मानस युधिष्ठिर
की तरह किसी में दोष नहीं देखता था । वे तो कृष्ण की भांति अशुभ में से भी शुभ को ग्रहण
करने वाले थे ।
फूलों से उन्हें प्यार था, पर उन्होने अपने जीवन में काँटों से कभी द्वेष नहीं किया । वे कुसुम से अभी
अधिक कोमल थे, किन्तु कर्तव्य पालन में व्रज से भी अधिक कठोर
थे । वे स्वजन को तो स्वजन मानते ही थे, पर परजन को भी स्वजन
मानते थे । सभी उनके लिए अपने थे, पराया कोई नहीं था ।
उनके मुखमण्डल पर सदा मुस्कान अठखेलियाँ करती थी । उनका
हृदय हमेशा प्रेम से सराबोर रहता था । वे सदा प्रसन्न रहते थे । वे शांति के देवता थे
। जब भी देखिये – गुलाब की तरह चेहरा खिला हुआ । उनके चेहरे पर सहज मुस्कान चमकती रहती
थी ।
चाहे कोई कुछ भी कह जाये, ऊंची नीची बात बोल जाये, पर मजाल जो उनके चेहरे पर एक भी शिकन आ जाये । उनका मानसिक संतुलन कभी इधर उधर नहीं होता था । आवेश, रोष तथा जोश किसे कहते हैं ? ....यह वे कभी जान नहीं पाये ।
हँसते और मुस्कराते हुए विष को पी जाना उस विषपायी को अच्छी तरह से आता था । यही कारण है कि उनका कोई दुश्मन नहीं थे । वे अजातशत्रु थे ।
चाहे कोई कुछ भी कह जाये, ऊंची नीची बात बोल जाये, पर मजाल जो उनके चेहरे पर एक भी शिकन आ जाये । उनका मानसिक संतुलन कभी इधर उधर नहीं होता था । आवेश, रोष तथा जोश किसे कहते हैं ? ....यह वे कभी जान नहीं पाये ।
हँसते और मुस्कराते हुए विष को पी जाना उस विषपायी को अच्छी तरह से आता था । यही कारण है कि उनका कोई दुश्मन नहीं थे । वे अजातशत्रु थे ।
उनका जीवन गुणों का गुलदस्ता था । वे ज्ञानी थे, ध्यानी थे, बहुश्रुत थे, पंडित
रत्न थे । उनमें सद्गुण इतने अधिक थे, जिन्हें यह वाचा कह नहीं
पा रही ।
यदि एक शब्द में कहूँ तो वे अपने ढंग के एक ही निराले
महापुरुष थे । अदभूत था उनका व्यक्तित्व और असाधारण था उनका कृतित्व ! इसलिए वे सभी
के लिए वंदनीय और अभिनंदनीय है । -संकलन – जैन संजीव नाहटा